बुधवार, 23 सितंबर 2020

आखिर किसान और सांसद क्यों कर रहे हैं कृषि विधेयकों का विरोध

हाल ही में विशेष रूप से पंजाब (Punjab) और हरियाणा (Haryana) राज्यों के किसानों द्वारा तीन कृषि विधेयकों (Agricultural Bills) के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है. गौरतलब है कि किसान जून 2020 में जारी किये गए अध्यादेशों को बदलना चाहते हैं. आसान भाषा में समझें तो किसान इस विधेयक के खिलाफ इसलिए हैं क्योंकि इसके जरिए कृषि वस्तुओं के व्यापार, मूल्य आश्वासन, अनुबंध सहित कृषि सेवाओं और आवश्यक वस्तुओं के लिये स्टॉक सीमा में बदलाव लाने की परिकल्पना करता हैं. इन विधेयकों में कृषि विपणन प्रणाली में बहुत आवश्यक सुधार लाने की मांग की गई है जैसे कि कृषि उपज के निजी स्टॉक पर प्रतिबंध को हटाना या बिचौलियों से मुक्त व्यापारिक क्षेत्र बनाना. हालांकि किसान आशंकित हैं कि इन विधेयकों द्वारा समर्थित मुक्त बाजार की अवधारणा न्यूनतम समर्थन मूल्य (Least Help Value MSP) प्रणाली को कमजोर कर सकती है और किसानों को बाजार की शक्तियों के प्रति संवेदनशील बना सकती है. 


तीन कृषि विधेयक जो विवादित हैं: 

  1. किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य विधेयक, 2020. 
  2. मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता विधेयक, 2020. 
  3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020. 


कृषि विधेयकों के उद्देश्य 

इन विधेयकों का उद्देश्य कृषि उपज बाजार समितियों (Agrarian Produce Market Advisory groups APMC) की सीमाओं से बाहर बिचौलियों और सरकारी करों से मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाकर कृषि व्यापार में सरकार के हस्तक्षेप को दूर करना है. यह किसानों को बिचौलियों के माध्यम से और अनिवार्य शुल्क जैसे लेवी का भुगतान किये बिना इन नए क्षेत्रों में सीधे अपनी उपज बेचने का विकल्प देगा. 

इस विधेयक के जरिए अंतर्राज्यीय व्यापार पर स्टॉक होल्डिंग सीमा के साथ-साथ प्रतिबंधों को हटाने और अनुबंध खेती के लिये एक ढांचा बनाने की मांग करते हैं. इसके साथ ही ये विधेयक बड़े पैमाने पर किसान उत्पादक संगठनों (Rancher Maker Associations FPO) के निर्माण को बढ़ावा देते हैं. इतना ही नहीं अनुबंध खेती के लिये एक किसान अनुकूल वातावरण बनाने में मदद करेगा, जिससे छोटे किसान भी लाभ उठा सकें. 

ये विधेयक निजी क्षेत्र को भंडारण, ग्रेडिंग और अन्य मार्केटिंग बुनियादी ढांचे में निवेश करने में सहायता कर सकता है. इन विधेयकों के संयुक्त प्रभाव से कृषि उपज के लिये 'वन नेशन, वन मार्केट' बनाने में मदद मिलेगी. 

विपक्ष और किसानों द्वारा उठाए  जा रहे मुद्दे 

संघीय दृष्टिकोण: किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधा) विधेयक, 2020 APMC क्षेत्राधिकार के बाहर नामित व्यापार क्षेत्रों में अप्रभावित वाणिज्य के लिये प्रावधान करता है. इसके अलावा यह विधेयक केंद्र सरकार को इस कानून के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये राज्यों को आदेश जारी करने का अधिकार देता है. हालांकि व्यापार और कृषि के मामलों को राज्य सूची के विषयों का हिस्सा होने के कारण राज्यों की नाराजगी भी इसके खिलाफ साथ दिखती है. जिससे किसानों को परोक्ष रुप से एक तरह से समर्थन ही मिल रहा है. 

परामर्श की कमी: उचित परामर्श के बिना विधेयकों को पारित करने का जल्दबाजी की वजह से किसानों सहित विभिन्न हितधारकों के बीच अविश्वास पैदा करता है. इसके अलावा APMC (Agricultural produce market committeeक्षेत्र के बाहर व्यापार क्षेत्रों को अनुमति देने से किसान आशंकित हो गए हैं कि नई प्रणाली से न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली अंततः बाहर निकल जाएगी. यही वजह है किसान इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं. 

गैर-APMC मंडियों में विनियमन की अनुपस्थिति: किसानों द्वारा उठाया गया एक और मुद्दा यह है कि प्रस्तावित विधेयक किसानों के हितों की कीमत पर कॉर्पोरेट हितों को वरीयता देते हैं. गैर-APMC मंडियों में किसी भी विनियमन के अभाव में किसानों को कॉरपोरेट्स से निपटना मुश्किल हो सकता है. जिसके खिलाफ छोटे और सीमांत किसान ठीक तरीके से आवाज भी नहीं उठा सकते. इतना ही नहीं कॉरपोरेट्स पूरी तरह से लाभ की मांग के उद्देश्य से काम करते हैं. 

पंजाब में कृषि विधेयकों का विरोध करते किसान और जन प्रतिनिधि


गैर-अनुकूल बाजार की स्थिति: खुदरा मूल्य दर उच्च बनी हुई हैं जबकि थोक मूल्य सूचकांक (Discount Value Record WPI) के आंकड़ों से अधिकांश कृषि उपज के लिये फार्म गेट की कीमतों में गिरावट का संकेत मिलता है. बढ़ती इनपुट लागत के साथ किसानों को मुक्त बाज़ार आधारित ढांचा उपलब्ध नहीं है जो उन्हें पारिश्रमिक मूल्य प्रदान करता है. 

इन आशंकाओं से बिहार जैसे राज्यों के अनुभव को बल मिलता है, जिसने वर्ष 2006 में APMC को समाप्त कर दिया था. मंडियों के उन्मूलन के बाद बिहार में अधिकांश फसलों के लिये किसानों को MSP की तुलना में औसतन कम कीमत प्राप्त हुई. 

क्या है आगे की राह 

प्रतिस्पर्द्धा को मज़बूत करने के लिये कृषि अवसंरचना में सुधार: सरकार को बड़े पैमाने पर APMC बाज़ार प्रणाली के विस्तार के लिये फंड देना चाहिये , व्यापार कार्टेल को हटाने के लिये प्रयास करना चाहिये और किसानों को अच्छी सड़कें, पैमाने की रसद और वास्तविक समय की जानकारी प्रदान करनी चाहिये. 


आगे की राह 

प्रतिस्पर्द्धा को मजबूत करने के लिये कृषि अवसंरचना में सुधार: सरकार को बड़े पैमाने पर APMC बाज़ार प्रणाली के विस्तार के लिये फंड देना चाहिये. व्यापार कार्टेल को हटाने के लिये प्रयास करना चाहिये और किसानों को अच्छी सड़कें, पैमाने की रसद और वास्तविक समय की जानकारी प्रदान करनी चाहिये.

राज्य किसान आयोगों को सशक्त बनाना: भारी केंद्रीकरण का विरोध करने के बजाय राष्ट्रीय किसान आयोग द्वारा अनुशंसित राज्य किसान आयोगों के माध्यम से किसानों को सशक्त बनाने पर जोर दिया जाना चाहिये ताकि मुद्दों पर सरकार की तीव्र प्रतिक्रिया आए.

सर्वसम्मति बनाना: केंद्र को किसानों सहित विधेयकों का विरोध करने वालों तक पहुँचना चाहिये उन्हें सुधार की आवश्यकता समझानी चाहिये और उन्हें बोर्ड पर लाना चाहिये.

मजबूत संस्थागत व्यवस्था के बिना मुक्त बाजार से लाखों असंगठित छोटे किसानों को लाखों का नुकसान हो  सकता है, जो उल्लेखनीय रूप से उत्पादक हैं और जिन्होंने महामारी के दौरान भी अर्थव्यवस्था को सहारा दिया है और देश की प्रगति के मार्ग पर हमेशा से अग्रसर बने हुए हैं.


मंगलवार, 22 सितंबर 2020

नई शिक्षा नीति 2020: चुनौतियों को पार करने पर ही मिलेगी सफलता

हाल ही में पीएम नरेंद्र मोदी के द्वारा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाई गई. इसे लाने के साथ ही देश में शिक्षा के पर व्यापक चर्चा आरंभ हो गई है. शिक्षा के संबंध में स्वामी विवेकानंद का कहना था कि मनुष्य की अंर्तनिहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है. इन्हीं चर्चाओं के बीच हम देखेंगे कि 1986 की शिक्षा नीति में ऐसी क्या कमियाँ रह गई थीं जिन्हें दूर करने के लिये नई राष्ट्रीय शिक्षा नति को लाने की आवश्यकता पड़ी. इसके साथ ही क्या यह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति उन उद्देश्यों को पूरा करने में सक्षम होगी जिसका स्वप्न महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद के साथ कई अन्य शिक्षाविदों ने देखा था?

सबसे पहले ‘शिक्षा’ क्या है इस पर गौर करना आवश्यक है. शिक्षा का शाब्दिक अर्थ होता है- सीखने एवं सिखाने की क्रिया परंतु अगर इसके व्यापक अर्थ को देखें तो शिक्षा किसी भी समाज में निरंतर चलने वाली सामाजिक प्रक्रिया है. जिसका कोई उद्देश्य होता है और जिससे मनुष्य की आंतरिक शक्तियों का विकास तथा व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकता है. शिक्षा द्वारा ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि कर मनुष्य को योग्य नागरिक बनाया जाता है.

नई शिक्षा नीति 2020 की घोषणा के साथ ही मानव संसाधन मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया है. इस नीति द्वारा देश में स्कूल एवं उच्च शिक्षा में परिवर्तनकारी सुधारों की अपेक्षा की गई है. इसके उद्देश्यों के तहत वर्ष 2030 तक स्कूली शिक्षा में 100% GER के साथ-साथ पूर्व-विद्यालय से माध्यमिक स्तर तक शिक्षा के सार्वभौमिकरण का लक्ष्य रखा गया है.

बता दें कि अंतिम राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में बनाई गई थी जिसमें वर्ष 1992 में संशोधन किया गया था. वर्तमान नीति अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट पर आधारित है. नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के तहत वर्ष 2030 तक सकल नामांकन अनुपात (Gross Eurolment Ratio-GER) को 100% लाने का लक्ष्य रखा गया है. इसके साथ ही नई शिक्षा नीति के अंतर्गत केंद्र व राज्य सरकार के सहयोग से शिक्षा क्षेत्र पर जीडीपी के 6% हिस्से के सार्वजनिक व्यय का लक्ष्य रखा गया है.



राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रमुख बिंदु
स्कूली शिक्षा संबंधी प्रावधान

  • नई शिक्षा नीति में 5 + 3 + 3 + 4 डिज़ाइन वाले शैक्षणिक संरचना का प्रस्ताव किया गया है जो 3 से 18 वर्ष की आयु वाले बच्चों को शामिल करता है.
  • पाँच वर्ष की फाउंडेशनल स्टेज (Foundational Stage) - 3 साल का प्री-प्राइमरी स्कूल और ग्रेड 1, 2
  • तीन वर्ष का प्रीपेट्रेरी स्टेज (Prepatratory Stage) 
  • तीन वर्ष का मध्य (या उच्च प्राथमिक) चरण - ग्रेड 6, 7, 8 और 
  • 4 वर्ष का उच (या माध्यमिक) चरण - ग्रेड 9, 10, 11, 12
  • NEP 2020 के तहत HHRO द्वारा ‘बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ (National Mission on Foundational Literacy and Numeracy) की स्थापना का प्रस्ताव किया गया है. इसके द्वारा वर्ष 2025 तक कक्षा-3 स्तर तक के बच्चों के लिये आधारभूत कौशल सुनिश्चित किया जाएगा.

भाषायी विविधता का संरक्षण  
  • NEP-2020 में कक्षा-5 तक की शिक्षा में मातृभाषा/स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को अध्ययन के माध्यम के रूप में अपनाने पर बल दिया गया है. इस नीति में मातृभाषा को कक्षा-8 और आगे की शिक्षा के लिये प्राथमिकता देने का सुझाव दिया गया है.
  • स्कूली और उच्च शिक्षा में छात्रों के लिये संस्कृत और अन्य प्राचीन भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध होगा लेकिन किसी भी छात्र पर भाषा के चुनाव की कोई बाध्यता नहीं होगी.

शारीरिक शिक्षा

विद्यालयों में सभी स्तरों पर छात्रों को बागवानी, नियमित रूप से खेल-कूद, योग, नृत्य, मार्शल आर्ट को स्थानीय उपलब्धता के अनुसार प्रदान करने की कोशिश की जाएगी ताकि बच्चे शारीरिक गतिविधियों एवं व्यायाम वगैरह में भाग ले सकें.

पाठ्यक्रम और मूल्यांकन संबंधी सुधार

इस नीति में प्रस्तावित सुधारों के अनुसार, कला और विज्ञान, व्यावसायिक तथा शैक्षणिक विषयों एवं पाठ्यक्रम व पाठ्येतर गतिविधियों के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं होगा. कक्षा-6 से ही शैक्षिक पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा को शामिल कर दिया जाएगा और इसमें इंटर्नशिप (Internship) की व्यवस्था भी की जाएगी. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद’ (National Council of Educational Research and Training- NCERT) द्वारा ‘स्कूली शिक्षा के लिये राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा’ (National Curricular Framework for college Education) तैयार की जाएगी.

छात्रों के समग्र विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कक्षा-10 और कक्षा-12 की परीक्षाओं में बदलाव किया जाएगा. इसमें भविष्य में समेस्टर या बहुविकल्पीय प्रश्न आदि जैसे सुधारों को शामिल किया जा सकता है. छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन के लिये मानक-निर्धारक निकाय के रूप में ‘परख’ (PARAKH) नामक एक नए ‘राष्ट्रीय आकलन केंद्र’ (National Assessment Centre) की स्थापना की जाएगी. इसके साथ ही छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन तथा छात्रों को अपने भविष्य से जुड़े निर्णय लेने में सहायता प्रदान करने के लिये ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ (Artificial Intelligence- AI) आधारित सॉफ्टवेयर का प्रयोग भी किया जा सकता है.

शिक्षण व्यवस्था से संबंधित सुधार

शिक्षकों की नियुक्ति में प्रभावी और पारदर्शी प्रक्रिया का पालन तथा समय-समय पर किये गए कार्य-प्रदर्शन आकलन के आधार पर पदोन्नति देने का प्रस्ताव है. राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा वर्ष 2022 तक ‘शिक्षकों के लिये राष्ट्रीय व्यावसायिक मानक’ (National Professional Standards for
Teachers- NPST) का विकास किया जाएगा. राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा NCERT के परामर्श के आधार पर ‘अध्यापक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ [National Curriculum Framework for Teacher Education-NCFTE) का विकास किया जाएगा. वर्ष 2030 तक अध्यापन के लिये न्यूनतम डिग्री योग्यता 4-वर्षीय एकीकृत बी.एड. डिग्री का होना अनिवार्य किया जाएगा.

उच्च शिक्षा से संबंधित क्या है प्रावधान

NEP-2020 के तहत उच्च शिक्षण संस्थानों में ‘सकल नामांकन अनुपात’ (Gross Enrolment Ratio) को 26.3% (वर्ष 2018) से बढ़ाकर 50% तक करने का लक्ष्य रखा गया है, इसके साथ ही देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में 3.5 करोड़ नई सीटों को जोड़ा जाएगा. NEP-2020 के तहत स्नातक पाठ्यक्रम में मल्टीपल एंट्री एंड एक्ज़िट व्यवस्था को अपनाया गया है, इसके तहत 3 या 4 वर्ष के स्नातक कार्यक्रम में छात्र कई स्तरों पर पाठ्यक्रम को छोड़ सकेंगे और उन्हें उसी के अनुरूप डिग्री या प्रमाण-पत्र प्रदान किया जाएगा (1 वर्ष के बाद प्रमाण-पत्र, 2 वर्षों के बाद एडवांस डिप्लोमा, 3 वर्षों के बाद स्नातक की डिग्री तथा 4 वर्षों के बाद शोध के साथ स्नातक). विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों से प्राप्त अंकों या क्रेडिट को डिजिटल रूप से सुरक्षित रखने के लिये एक ‘एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट’ (Academic Bank of Credit) दिया जाएगा, ताकि अलग-अलग संस्थानों में छात्रों के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें डिग्री प्रदान की जा सके. नई शिक्षा नीति के तहत एम.फिल. (M.Phil) कार्यक्रम को समाप्त कर दिया गया.

भारतीय उच्च शिक्षा आयोग का गठन

नई शिक्षा नीति (NEP) में देश भर के उच्च शिक्षा संस्थानों के लिये एक एकल नियामक यानी भारतीय उच्च शिक्षा परिषद (Higher Education Commision of India-HECI) की परिकल्पना की गई है. जिसमें विभिन्न भूमिकाओं को पूरा करने हेतु कई कार्यक्षेत्र होंगे. भारतीय उच्च शिक्षा आयोग चिकित्सा एवं कानूनी शिक्षा को छोड़कर पूरे उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिये एक एकल निकाय (Single Umbrella Body) के रूप में कार्य करेगा.

HECI के कार्यों के प्रभावी निष्पादन हेतु चार निकायों का गठन होगा

1. राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामकीय परिषद (National education Regulatroy Council-NHERC) : यह शिक्षक शिक्षा सहित उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिये एक नियामक का कार्य करेगा. सामान्य शिक्षा परिषद (General Education Council - GEC) : यह उच्च शिक्षा कार्यक्रमों के लिये अपेक्षित सीखने के परिणामों का ढाँचा तैयार करेगा अर्थात् उनके मानक निर्धारण का कार्य करेगा.

2. राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद (National Accreditation Council - NAC) : यह संस्थानों के प्रत्यायन का कार्य करेगा जो मुख्य रूप से बुनियादी मानदंडों, सार्वजनिक स्व-प्रकटीकरण, सुशासन और परिणामों पर आधारित होगा.

3. उच्चतर शिक्षा अनुदान परिषद (Higher Education Grants Council - HGFC) : यह निकाय कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों के लिये वित्तपोषण का कार्य करेगा.

4. देश में आईआईटी (IIT) और आईआईएम (IIM) के समकक्ष वैश्विक मानकों के ‘बहुविषयक शिक्षा एवं अनुसंधान विश्वविद्यालय’ (Multidisciplinary Education and Reserach Universities - MERU) की स्थापना की जाएगी.

विकलांग बच्चों के लिए क्या है प्रावधान

इस नई नीति में विकलांग बच्चों के लिये क्रास विकलांगता प्रशिक्षण, संसाधन केंद्र, आवास, सहायक उपकरण, उपर्युक्त प्रौद्योगिकी आधारित उपकरण, शिक्षकों का पूर्ण समर्थन एवं प्रारंभिक से लेकर उच्च शिक्षा तक नियमित रूप से स्कूली शिक्षा प्रक्रिया में भागीदारी सुनिश्चित करना आदि प्रक्रियाओं को सक्षम बनाया जाएगा.

डिजिटल शिक्षा से संबंधित ये हैं प्रावधान

एक स्वायत्त निकाय के रूप में ‘‘राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी मंच’’ (National Educational Technol Foruem) का गठन किया जाएगा जिसके द्वारा शिक्षण, मूल्यांकन योजना एवं प्रशासन में अभिवृद्धि हेतु विचारों का आदान-प्रदान किया जा सकेगा. डिजिटल शिक्षा संसाधनों को विकसित करने के लिये अलग प्रौद्योगिकी इकाई का विकास किया जाएगा जो डिजिटल बुनियादी ढाँचे, सामग्री और क्षमता निर्माण हेतु समन्वयन का कार्य करेगी.

पारंपरिक ज्ञान-संबंधी प्रावधान

भारतीय ज्ञान प्रणालियाँ, जिनमें जनजातीय एवं स्वदेशी ज्ञान शामिल होंगे, को पाठ्यक्रम में सटीक एवं वैज्ञानिक तरीके से शामिल किया जाएगा.

वित्तीय सहायता की रुपरेखा क्या होगी

एससी, एसटी, ओबीसी और अन्य सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित समूहों से संबंधित मेधावी छात्रों को प्रोत्साहन के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान की जाएगी. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 इस नीति का उद्देश्य असमानताओं को दूर करने विशेष रूप से भारतीय महिलाओं, अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जाति समुदायों के लिये शैक्षिक अवसर की बराबरी करने पर विशेष ज़ोर देना था. इस नीति ने प्राथमिक स्कूलों को बेहतर बनाने के लिये "ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड" लॉन्च किया. इस नीति ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के साथ ‘ओपन यूनिवर्सिटी’ प्रणाली का विस्तार किया. ग्रामीण भारत में जमीनी स्तर पर आर्थिक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देने के लिये महात्मा गांधी के दर्शन पर आधारित "ग्रामीण विश्वविद्यालय" मॉडल के निर्माण के लिये नीति का आह्वान किया गया.

पूर्ववर्ती शिक्षा नीति में परिवर्तन की आवश्यकता क्यों पड़ी?

बदलते वैश्विक परिदृश्य में ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये मौजूदा शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता थी. शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने, नवाचार और अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिये नई शिक्षा नीति की आवश्यकता थी.

नई शिक्षा नीति से संबंधित चुनौतियाँ

राज्यों का सहयोगः शिक्षा एक समवर्ती विषय होने के कारण अधिकांश राज्यों के अपने स्कूल बोर्ड हैं इसलिये इस फैसले के वास्तविक कार्यान्वयन हेतु राज्य सरकारों को सामने आना होगा. साथ ही शीर्ष नियंत्रण संगठन के तौर पर एक राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामक परिषद को लाने संबंधी विचार का राज्यों द्वारा विरोध हो सकता है.

महँगी शिक्षाः नई शिक्षा नीति में विदेशी विश्वविद्यालयों में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया गया है. विभिन्न शिक्षाविदों का मानना है कि विदेशी विश्वविद्यालयों में प्रवेश से भारतीय शिक्षण व्यवस्था के महँगी होने की आशंका है. इसके फलस्वरूप निम्न वर्ग के छात्रों के लिये उच्च शिक्षा प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है.
शिक्षा का संस्कृतिकरणः दक्षिण भारतीय राज्यों का यह आरोप है कि ‘त्रि-भाषा’ सूत्र से सरकार शिक्षा का संस्कृतिकरण करने का प्रयास कर रही है. फंडिंग संबंधी जाँच का अपर्याप्त होनाः कुछ राज्यों में अभी भी शुल्क संबंधी विनियमन मौजूद है, लेकिन ये नियामक प्रक्रियाएँ असीमित दान के रूप में मुनाफाखोरी पर अंकुश लगाने में असमर्थ हैं.

वित्तपोषणः वित्तपोषण का सुनिश्चित होना इस बात पर निर्भर करेगा कि शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय के रूप में जीडीपी के प्रस्तावित 6%खर्च करने की इच्छाशक्ति कितनी सशक्त है. मानव संसाधन का अभावः वर्तमान में प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में कुशल शिक्षकों का अभाव है, ऐसे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के तहत प्रारंभिक शिक्षा हेतु की गई व्यवस्था के क्रियान्वयन में व्यावहारिक समस्याएँ भी हैं.

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 21वीं सदी के भारत की जरूरतों को पूरा करने के लिये भारतीय शिक्षा प्रणाली में बदलाव हेतु जिस नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को मंज़ूरी दी है, अगर उसका क्रियान्वयन सफल तरीके से होता है तो यह नई प्रणाली भारत को विश्व के अग्रणी देशों के समकक्ष ले आएगी. नई शिक्षा नीति, 2020 के तहत 3 साल से 18 साल तक के बच्चों को शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 के अंतर्गत रखा गया है. 34 वर्षों पश्चात् आई इस नई शिक्षा नीति का उद्देश्य सभी छात्रों को उच्च शिक्षा प्रदान करना है जिसका लक्ष्य 2025 तक पूर्व-प्राथमिक शिक्षा (3-6 वर्ष की आयु सीमा) को सार्वभौमिक बनाना है. 

सोमवार, 21 सितंबर 2020

भारत को क्यों है कोयला आधारित ऊर्जा की आवश्यकता

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने पेरिस समझौते के महत्त्व पर प्रकाश डाला और अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए भारत को वर्ष 2030 तक कोयला उत्पादन रोकने और कार्बन उत्सर्जन को 45% कम करने के लिये कहा. हालांकि भारत उन चुनिंदा देशों में से एक है जहाँ कम-से-कम 2°C तापमान अनुरूप जलवायु कार्य योजना है. गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा कही गई बातें UNFCCC के मूल सिद्धांत यानी ‘समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्त्वों (Common but differentiated responsibilities- CBDR) के सिद्धांत के अनुरूप नहीं थी. CBDR विकसित देशों की जिम्मेदारियों एवं प्रतिबद्धताओं के बीच मुख्य अंतर को दर्शाता है जो विकासशील देशों के पक्ष में दिखाई देता है.

यदि भारत वर्ष 2020 के बाद कोयला क्षेत्र में कोई नया निवेश नहीं करता है तो संभवतः भारत का औद्योगिकीकरण प्रभावित होगा. जिससे भारत की आर्थिक विकास यात्रा पर नकारात्मक असर पड़ेगा. इसलिये भारत को विकास एवं पर्यावरण के बीच संतुलन के सिद्धांतों का पालन करते हुए पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये विकसित देशों के साथ सक्रिय रूप से जुड़ना चाहिये.



जानिए क्या है भारत में ग्रीन हाउस गैस (GHG) उत्सर्जन की स्थिति:

G-20 देशों में भारत, सबसे कम प्रति व्यक्ति GHG उत्सर्जन करता है. हाल के दशकों में भारत के वार्षिक उत्सर्जन (0.5 टन प्रति व्यक्ति) की त्वरित आर्थिक वृद्धि के बावजूद यह 1.3 टन के वैश्विक औसत से कम है. इसके अलावा निरपेक्ष रूप से चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ (European Union-EU) तीन प्रमुख उत्सर्जक हैं जिनका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से अधिक है.

संचयी उत्सर्जन के संदर्भ में, वर्ष 2017 तक भारत का योगदान 1.3 बिलियन आबादी पर केवल 4% था जबकि मात्र 448 मिलियन आबादी वाला यूरोपीय संघ 20% उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी था. जो यह दर्शाता है कि वैश्विक मानचित्र में उत्तर में स्थित यूरोपीय देशों ने जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता बनाए रखी है.

UNFCCC के अनुसार, वर्ष 1990 और वर्ष 2017 के बीच विकसित देशों (रूस एवं पूर्वी यूरोपीय देशों को छोड़कर) ने अपने वार्षिक उत्सर्जन में केवल 1.3% की कमी की है. इसके अलावा GHG के प्रमुख उत्पादकों में से एक संयुक्त राज्य अमेरिका ने खुद को पेरिस समझौते से बाहर कर लिया गया है.

कोयला बनाम नवीकरणीय ऊर्जा:

भारत अभी भी एक विकासशील देश है. विकसित देशों के विपरीत भारत (विकास दायित्वों को देखते हुए) कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन को नवीकरणीय ऊर्जा के साथ पर्याप्त रूप से प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है. नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों एवं उनका बड़े पैमाने पर संचालन तथा उत्पादन क्षमता की कमी को देखते हुए कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों को बंद करने और नवीकरण ऊर्जा में बदलने से भारत की बाहरी स्रोतों से नवीकरणीय प्रौद्योगिकी उपकरणों के आयात एवं आपूर्ति शृंखलाओं पर निर्भरता बढ़ेगी. वर्ष 2050 बिजली उत्पादन में 285% की वृद्धि के लिये भारत के पारंपरिक ऊर्जा स्रोत महत्त्वपूर्ण साबित होंगे.

अकेले नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम नहीं होंगे. आने वाले समय में भारत की ज़रूरतों को पूरा करने और नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक है कि वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को जीवाश्म ईंधन वाले सक्रिय ग्रिडों के साथ एकीकृत किया जाए. इसके अतिरिक्त जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा द्वारा संचालित विनिर्माण वृद्धि अपने आप में एक आवश्यकता है.

विनिर्माण के लिये जीवाश्म-ईंधन की आवश्यकता 

विनिर्माण उद्योग को बिजली की निर्बाध आपूर्ति की आवश्यकता होती है इसलिये नवीकरणीय ऊर्जा विनिर्माण उद्योग को संचालित नहीं कर सकती है. नवीकरणीय ऊर्जा से उत्पन्न विद्युत आपूर्ति को जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा संयंत्र की तरह चालू एवं बंद नहीं किया जा सकता है. इस प्रकार नवीकरणीय ऊर्जा हमेशा विश्वसनीय नहीं होती है और विशेष रूप से चरम माँग के समय नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से निर्बाध विद्युत आपूर्ति नहीं की जा सकती है.

यह (विनिर्माण उद्योग) कोयले सहित पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की आवश्यकता की पुष्टि करता है जो नवीकरणीय ऊर्जा की मांग को पूरा करने में विफल होने पर तत्काल विद्युत आपूर्ति कर सकते हैं. भारत में कोयला विद्युत आपूर्ति का आधार है: भारत में कोयला विद्युत का प्रमुख स्रोत है. वर्तमान में यह लगभग दो तिहाई विद्युत की आपूर्ति के लिये ज़िम्मेदार है, जिनमें से अधिकांश को ताप विद्युत संयंत्र में संसाधित किया जाता है. केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (Central Electric Authority) द्वारा प्रकाशित वर्ष 2019 की रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2030 में भारत में विद्युत उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा कोयला आधारित होगा.

क्या है आगे की राह

कोयला आधारित ऊर्जा को पर्यावरण के अधिक अनुकूल बनाना: पूर्ण रूप से नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाने के बजाय कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को और अधिक पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिये नई तकनीकों (जैसे- कोल गैसीफिकेशन [Coal Gasification), कोल बेनीफिकेशन (Coal Beneficiation) आदि] की एक शृंखला तैयार की जा सकती है. इससे ज्वलनशील कोयले के हानिकारक पर्यावरणीय प्रभावों को प्रभावशाली तरीके से कम किया जा सकेगा.

विकसित देशों के साथ जुड़ाव: कोपेनहेगन समझौते-Copenhagen Accord {संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP-15) 2009 के दौरान स्थापित} के तहत विकसित देशों ने वर्ष 2012 से वर्ष 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर देने का वादा किया था. इस फंड को हरित जलवायु कोष (Green Climate Fund- GCF) के रूप में जाना जाता है। GCF का उद्देश्य विकासशील और अल्प विकसित देशों (Least Developing Countries) को जलवायु परिवर्तन के मुद्दों से समाधान में सहायता करना है.

इस प्रकार भारत जलवायु शमन एवं अनुकूलन हेतु धन और प्रौद्योगिकी जुटाने के लिये विकसित देशों के साथ सक्रिय रूप से जुड़ सकता है. इसी प्रकार भारत, यूरोपीय संघ (European Union) के साथ सक्रिय रूप से सहयोग कर सकता है जिसने वर्ष 2050 तक हरित जलवायु समझौते के अंतर्गत ‘कार्बन तटस्थता’ प्राप्त करने की परिकल्पना की है.

गौरतलब है कि भारत कार्बन स्थिरता की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है. केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार, भारत में वर्ष 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत से 50% विद्युत उत्पादन होगा. जिसमें पवन एवं सौर ऊर्जा की हिस्सेदारी सबसे अधिक होगी. फिर भी भविष्य में परिवर्तन (जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा में) को सुचारु बनाने और कार्बन-मुक्त ऊर्जा की अपनी दीर्घकालिक उद्देश्य को साकार करने के लिये देश को पारंपरिक स्रोतों के साथ-साथ नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को पूरक बनाना होगा.

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

AMAR CHANDRA SONU (M.Sc, AMA)
Racism is not new in India and it is mostly affected on some state as Assam, Mumbai etc. Racism is a weapon through which some powerful people like Thakeray family use to destroy the country on the name of language. Government should must have to stop it and stop the all these types of communication on which they convince the public as like “Saamana” (newspaper). Media also must deny these types of coverage and not promote them. And those who take part in Racism, they must be punish by fast track court and also send them long term jail. I can’t understand the difference between Kasab and Thackeray or other terrorist. Thackeray is a biggest criminal than Kasab or other terrorist because they do his assign work but what Thackeray family do everyone know and understand it. India is our country it depend on how we make it………… or finish it……………..